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जब अ’दू जाने-शहे-अबरार पे आ जाते हैं !
ग़ैब से जाल दरे-ग़ार पे आ जाते हैं !
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घर के बदले हुए हालात के पोशीदा नुक़ूश ;
खुल के इक दिन दरो-दीवार पे आ जाते हैं !
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ज़ो’फ़ ऐसा है कि बोली नहीं लगती हमसे ;
और वो अगले ख़रीदार पे आ जाते हैं !
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अब न आना कि तिरी एक अयादत के सबब ;
लाख ता’ने तिरे बीमार पे आ जाते हैं !
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तंग हाली तो गुज़रती है रियाया पे मगर ;
क़ैसर-ओ-ज़ार भी फिर दार पे आ जाते हैं !
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साफ़ करता है जिन्हें ग़ैर के आगे झुककर ;
वही धब्बे तिरी दस्तार पे आ जाते हैं !
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गुले-रग़बत को है दरकार न बारिश न बहार ;
बस ये ख़ाके-दिले-बेज़ार पे आ जाते हैं !
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कुफ़्रे-ने’मत है कि आफ़ात गुज़रते ही फ़राज़;
हम उसी तर्ज़-ए-गुनहगार पे आ जाते हैं !
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