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रह गयी जो बस इक ख़ुमारी है ||
ये भी जानां अ’ता तुम्हारी है ||
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फ़ैसला कर गया बस इक पैदा ;
वह अ’दावत जो अब भी जारी है ||
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हिज्र जितना हुआ गिरां हमपर ;
ज़ख्म उतना उधर भी कारी है ||
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क्या कमी रह गयी कहीं हमसे ?
क्योँ वफ़ा का सिला ये ख़्वारी है ?
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बात थोड़ी ही ग़ैर से तेरी ;
गर जो सोचो तो बात भारी है ||
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अक़्ल करती है नौकरी उसकी ;
दिल तो मश्ग़ूले-बुत-निगारी है ||
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आज कुछ पल सहर को रहने दो ;
हमने बरसों में शब गुज़ारी है ||
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इस क़हत में तेरी फ़रावानी ;
हम ग़रीबों की इन्किसारी है ||
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ख़त्म सौदागरी हुई सारी ;
ज़िन्दगी अब तो दिन-शुमारी है ||
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यारों मय्यत फ़राज़ की देखो ;
क्या मुहब्बत की आहो-ज़ारी है !!
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