कहने को फ़क़त गेसू-ए-ख़मदार खुले हैं !
क़ैदी दिले-सादा हैं, गुनहगार खुले हैं !
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किस हुक्म से ये आलमे-अनवार खुले हैं !
उक़दे न ख़िरद से अभी दुशवार खुले हैं !
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हमसे न उलझ शैख़ कि सब हमको ख़बर है ;
किस-किस के कहाँ जुब्बा-ओ-दस्तार खुले हैं !
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छिपने की नसीहत तू किसी और को करना;
तूफ़ाँ की है आमद? दरो-दीवार खुले हैं !
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बरपा है अज़ल से वो तसादुम कि यहाँ पर ;
इमकां नये सब बाइसे-तकरार खुले हैं !
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अल्लाह की जानिब से तो बैनामा नहीं है ;
असलन वो हैं ग़ासिब जो ज़मींदार खुले हैं !
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मुफ़लिस को अगर घर में सहूलत नहीं हासिल;
शाहों का ये तुर्रा है कि बाज़ार खुले हैं !
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हक़ बात जो कहने की जसारत नहीं करते;
ज़िंदा हैं वो छिपकर वले मुरदार खुले हैं !
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या रब लबे-मुस्लिम है सरे-दश्ते-ख़िरद ख़ुश्क ;
यूरप में तिरे अब्रे-पुर-असरार खुले हैं !
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अपना नहीं मौज़ू-ए-ग़ज़ल अबरू-ए-जानां ;
याँ दुनिया-ए-बद-रू के सब अदवार खुले हैं !
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