birhaman kunisht meiN
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गुज़री तमाम उम्र मेरी संग-ओ-ख़िश्त में ||
छोड़ी न बुत-गरी कभी हिरसे-बहिश्त में ||
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क्या लुत्फ़ था गर आप इताअ’त का इम्तेहाँ ;
लेते न करके नक़्श , बग़ावत सरिश्त में ||
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हर सुर्ख़-इन्क़िलाब से मोहकम है आज भी ;
हल्का सा रंग सब्ज़, ये वीरान-किश्त में ||
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ख़िलक़त हुई जहान की लाखों नशिस्त में ;
तख़रीब भी लिखी गयी हर सरनविश्त में ||
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मुल्ला भी है फ़राज़ तफ़क्कुर से मुज्तनिब ;
बैठा है अक़्ल-बन्द बिरहमन कुनिश्त में ||
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