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मुमकिन नहीं किसी की, हाजत-रवा रही हो ||
जो ज़िन्दगी क़ज़ा को, नज़दीक ला रही हो ||
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ता’मीरे-नौ की नौबत, आए न उस जगह जो ;
हसरत का मुद्दतों से, इक आसरा रही हो ||
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मेरे लिए नहीं है , वो हूर ख़ास दिलकश ;
दुनिया के मसअलों से, जो मावरा रही हो ||
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कटतीं हैं सर्द-रातें, इस एक जुस्तजू में ;
रौज़न से अब तो शायद, कुछ धूप आ रही हो ||
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कुछ भी ग़लत नहीं है, इसमें कि मुझसे पहले ;
चाहत किसी की तुमको, बे-इन्तहा रही हो ||
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आई गयी भले पर, क़ायम-मक़ाम दिल में ;
इक कैफ़ियत नहीं जो, ग़म के सिवा रही हो ||
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मैं हिज्र का तुम्हारे, क्योँ ख़ौफ़ खा रहा हूँ ;
मेरे बग़ैर भी जब, तुम ख़ुशनुमा रही हो ||
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हमने फ़राज़ अब तक, देखा नहीं कहीं पर ;
दानिश्वरों की महफ़िल, उक़्दा-कुशा रही हो ||
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