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क़ैदी ही बस नहीं रही दीवारो-दर की ईद !!
शाहिद बनी है सैकड़ों ख़ूने-जिगर की ईद !!
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जिस चाँद का शिआ’र है रुख़ पल में फेरना ;
रौशन करेगा क्या किसी तारीक घर की ईद !!
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इक फ़ातिहा है ग़ैरत-ए-मिल्लत की क़ब्र पर ;
अक़्सा के हर मुजाहिदे-बे-बालो-पर की ईद !!
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हाकिम जो फ़िक्र वक़्त पे करता तो ये ग़रीब ;
कुछ साल और देखता नूरे-नज़र की ईद !!
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रसमन अदा किया दिले-मातम-ज़दा ने फ़र्ज़ ;
मक़तल बना हो शहर तो कैसी किधर की ईद !!
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तौबा ख़ुदा कि ग़फ़लते-रमज़ाँ से मुतमइन ;
ओढ़े रही ग़ुनूदगी मुझ बेख़बर की ईद !!
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ग़रक़ाब हूँ मैं आज कि मेरे लिए फ़राज़ ;
इक वज्हे-सैले-अश्क है हर चश्मे-तर की ईद !!