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चोट खाकर भी रहे चुप, कभी बाहर रोए ||
हमको अच्छा नहीं लगता है कि घर भर रोए ||
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जिनकी ख़ुश्बू को तरसते रहे पक्के आँगन ;
वही बरसात में रिसते हुए छप्पर रोए ||
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काम जिनका था जफ़ाओं पे क़सीदे पढ़ना ;
आख़िर-आख़िर वो सितमगर के सनागर रोए ||
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अव्वले-शब तो परेशाँ थे परिस्तारे-सुब्ह ;
धीरे-धीरे बढ़ी ज़ुल्मत तो निशाचर रोए ||
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पहले दीवाना समझ कर मुझे मारे पत्थर ;
फिर अक़ीदत से मिरी क़ब्र पे आकर रोए ||
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तुम हमें भूल गए हो, ये पता था फिर भी ;
हम तुम्हें याद यहाँ कर के बराबर रोए ||
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उठ रहीं दिल में मिरे नार की ऐसी लपटें ;
ताब कर दूँ जो बयाँ आज तो महशर रोए ||
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हाँ नहीं था तिरी आदत को भुलाना बस में ;
हम तिरे हिज्र में तकिये से लिपटकर रोए ||
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कम ही मिलते हैं हमें ऐसी ख़ुशी के मौक़े ;
उसने हंसने को कहा था, तो मुकर्रर रोए ||
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बाप मजबूर वो कितना है कि जिसका बच्चा ;
इक खिलौने की फ़क़त ज़िद में सड़क पर रोये ||
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जल्द जायेगी फ़राज़ आप की ऐशो-इशरत ;
वक़्त गुज़रा तो सभी शाह सिकंदर रोए ||
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