nazar se
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रस्ते में मिले वो जो थे दा’वे में ख़िज़र से !
लौटे हैं सो हम अबकि बहुत थक के सफ़र से !
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इस हसरते-दस्तार में लाखों हैं कि जिनकी ;
पूरी तो न ख़्वाहिश हुई उल्टे गए सर से !
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ज़िंदा हूँ कि खोया न तलातुम में तवाज़ुन ;
बदज़न हुआ कश्ती से न नालिश की भँवर से !
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हर दम है ज़बाँ पर ये जहन्नम की बशारत ;
अल्लाह बचाए हमें ज़ाहिद तिरे शर से !
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क्या सीख के निकला था वो मस्जिद से कि उसने ;
देखा मुझे रस्ते पे हिक़ारत की नज़र से !
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रुक ए दिले-माइल कि अभी रात नहीं है ;
फिरते हैं वो खोले हुए जूड़े को सहर से !
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उस तंग गली में खड़े साकित कोई पल भर ;
सोचा किए दोनों ही कि निकलूँ मैं किधर से !
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तसबीहे-ख़ुदा को वहाँ काफ़ी थे मलक ही ;
सो क्या हैं तक़ाज़े जो इज़ाफ़ी थे बशर से !
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उस आमिले-बद-बख़्त को साइन्स पढ़ाओ ;
लोगों को बचाता है जो आसेबी-असर से !
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वहशत की वुजूहात में अव्वल तो बताएँ ;
दूरी है फ़राज़ आपकी अरबाबे-हुनर से !
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