phir koi Iqbal ho
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नफ़्स को ना हों गवारा जब कभी भी बंदिशें ;
है ज़रूरी फिर तक़ददुस मज़हबी पामाल हो !!
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हो रहेगी ज़िन्दगी , क़ैदे-ख़ुदा से बे - ग़रज़ ;
गर ख़िरद के गिर्द में जमहूरियत का जाल हो !!
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फ़लसफ़े को रूह फिर, दरकार है इस दौर में ;
हो ग़ज़ाली फिर से पैदा, फिर कोई इक़बाल हो !!
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