waada shikan ke paaNv
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पीता हूँ धो के मैं उसी वादा-शिकन के पाँव !
रखता है दिल पे रोज़ जो कुछ और बन के पाँव !
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वो ज़ख़्मियों की हाय में महशर का शोर था ;
जिस धुन पे महवे-रक़्स थे हर ख़ंदाज़न के पाँव !
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अरसा लगा मगर तिरी चाहत में आख़िरश ;
भूले हैं हर सराब को मुझ से हिरन के पाँव !
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इक ख़्वाबे-बे-बहा के तअ’क़्क़ुब में शाम से ;
होते हैं थक के सुब्ह तलक चार मन के पाँव !
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अपनी जफ़ा से बाज़ मिरे सर के ख़ार-ज़ार ;
तौबा करे हैं देख के उस गुल-बदन के पाँव !
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दायम निशाने-राह हैं वो नूर-ए-मो’तबर ;
सहरा में जो रक़म हुए शाहे-ज़मन के पाँव !
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फिरता है साथ ले के उन्हें दश्त में फ़राज़ ;
आदी हैं बचपने से जो फ़र्शे-चमन के पाँव !
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