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जो ज़मीं से ता-फ़लक इक नामवर अच्छा लगा !!
बस उसी पर तमग़ाए-ख़ैरुल-बशर अच्छा लगा !!
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अब खुली है आँख वर्ना धूप से कुछ पेश्तर ;
हम भी उनमें थे जिन्हें रंगे-सहर अच्छा लगा !!
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जुस्तजू के नाम पर राहे-वफ़ा को छोड़ कर ;
बे-हया है चल पड़ा जो जब जिधर अच्छा लगा !!
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हर तरफ़ फैली हुई देखीं थीं हमने ज़ुलमतें ;
आग जब घर को लगी बा-यक नज़र अच्छा लगा !!
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उम्र-भर चलकर मिली मंज़िल लगी बे-फ़ायदा ;
आबलों को पैर के वापस सफ़र अच्छा लगा !!
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लफ़्ज़े-फ़ुरक़त काट दें गर क़िस्सए-उल्फ़त से तो ;
ज़ीस्त का हर बाब हमको बेशतर अच्छा लगा !!
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वक़्त गुज़रा फिर जब उसकी क़ब्र पर मेले लगे ;
नस्ले-क़ातिल को भी वो आशुफ़्ता-सर अच्छा लगा !
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रात बिखरी जब मिरे कमरे में उसकी रौशनी ;
क्या कहें वो माह-रु तब किस क़दर अच्छा लगा !!
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कज नज़र कुछ लोग इसपर मो’तरिज़ हैं पर मुझे ;
रखना तेरा हाथ मेरे हाथ पर अच्छा लगा !!
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बाइसे-ए’जाज़ है ये बा-तुफ़ैल-ए-हक़ फ़राज़ ;
तेग़ को हर शिम्र की मेरा ही सर अच्छा लगा !!
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